ॐ।
1. एक ही सिद्धांत, एक ही इष्ट एक ही मंत्र, एक ही माला, एक ही समय, एक ही आसन, एक ही स्थान हो तो जल्दी सीधी होती है।
2. विष्णु, शंकर, गणेश, सूर्य और देवी - ये पाँचों एक ही हैं। विष्णु क़ी बुद्धि 'गणेश' है, अहम् 'शंकर', नेत्र 'सूर्य' है और शक्ति 'देवी' है। राम और कृष्ण विष्णु के अंतर्गत ही हैं।
3. कलियुग में कोई अपना उद्दार करना चाहे तो राम तथा कृष्ण क़ी प्रधानता है, और सिद्दियाँ प्राप्त करना चाहे तो शक्ति तथा गणेश क़ी प्रधानता है- 'कलौ चणडीविनायकौ'।
4. औषध से लाभ न तो हो भगवान् को पुकारना चाहिए। एकांत में बैठकर कातर भाव से, रोकर भगवान् से प्रार्थना करें जो काम औषध से नहीं होता, वह प्रार्थना से हो जाता है। मन्त्रों में अनुष्ठान में उतनी शक्ति नहीं है, जितनी शक्ति प्रार्थना में है। प्रार्थना जपसे भी तेज है।
5. भक्तों के नाम से भगवान् राजी होते हैं। शंकर के मन्दिर में घंटाकर्ण आदि का, राम के मन्दिर में हनुमान, शबरी आदि का नाम लो। शंकर के मन्दिर में रामायण का पाठ करो। राम के मन्दिर में शिव्तान्दाव, शिवमहिम्न: आदि का पाठ करो। वे राजी हो जायेंगे। हनुमानजी को प्रसन्न करना हो उन्हें रामायण सुनाओ। रामायण सुनने से वे बड़े राजी होते हैं।
6. अपने कल्याण क़ी इच्छा हो तो 'पंचमुखी या वीर हनुमान' क़ी उपासना न करके 'दास हनुमान' क़ी उपासना करनी चाहिए।
7. शिवजी का मंत्र रुद्राक्ष क़ी माला से जपना चाहिए, तुलसी क़ी माला से नहीं।
8. हनुमानजी और गणेशजी को तुलसी नहीं चढानी चाहिए।
9. गणेशजी बालाक्स्वरूप में हैं। उन्हें लड्डू और लाल वस्त्र अच्छे लगते हैं।
10. दशमी- विद्ध एकादशी त्याज्य होती है, पर गणेशचतुर्थी त्रित्या- विद्धा श्रेष्ठ होती है।
11. किसी कार्यको करें या न करें - इस विषय में निर्णय करना हो तो एक दिन अपने इस्ट का खूब भजन-ध्यान, नामजप, कीर्तन करें। फिर कागज़ क़ी दो पुडिया बनाएं, एक में लिखें 'काम करें' और दूसरी में लिखें 'काम न करें'। फिर किसी बच्चे से कोई एक पुडिया उठ्वायें और उसे खोलकर पढ़ लें।
12. किंकर्तव्यविमूढ होने क़ी दशा में चुप, शांत हो जाएँ और भगवान् को याद करें तो समाधान मिल जाएगा।
13. कोई काम करना हो तो मन से भगवान् को देखो। भगवान् प्रसन्न देखें तो वह काम करो और प्रसन्न न देखें तो वह काम मत करो क़ी भगवान् क़ी आगया नहीं है। एक- दो दिन करोगे तो भान होने लगेगा।
14. विदेशी लोग दवापर जोर देते हैं, पर हम पथ्यपर जोर देते हैं -
पथ्ये सटी गदार्तस्य किमौषधनिषेवणै:।
पथ्येSसति गदर्त्तस्य किमौषधनिषेवणै:।
'पथ्य से रहने पर रोगी व्यक्ति को औषध-सेवन से क्या प्रायोजन ? और पथ्य से न रहने पर रोगी व्यक्ति को औषध - सेवन से क्या प्रायोजन ?'
15. जहाँ तक हो सके, किसी भी रोग में आपरेशन नहीं करना चाहिए। दवाओं से चिकित्सा करनी चाहिए। आपरेशन द्वारा कभी न करायें। जो स्त्री चक्की चलाती है, उसे प्रसव के स्ममय पीड़ा नहीं होती और स्वास्थ भी सदा ठीक रहता है।
16. इक ही दावा लम्बे समय तक नहीं लेनी चाहिए। बीच में कुछ दिन उसे छोड़ देना चाहिए। निरंतर लेने से वह दावा आहार (भोजन) क़ी तरह जो जाता है।
17. वास्तव में प्रारब्ध से रोग बहुत कम होते हैं, ज्यादा रोग कुपथ्य से अथवा असंयम से होते हैं, कुपथ्य छोड़ दें तो रोग बहुत कम हो जायेंगे। ऐसे ही प्रारभ दुःख बहुत कम होता है, ज्यादा दुःख मूर्खता से, राग-द्वेष से, खाब स्वभाव से होता है।
18. चिंता से कई रोग होते हैं। कोई रोग हो तो वह चिंता से बढ़ता है। चिंता न करने से रोग जल्दी ठीक होता है। हर दम प्रसन्न रहने से प्राय: रोग नहीं होता, यदी होता भी है तो उसका असर कम पड़ता है।
19. मन्दिर के भीतर स्थित प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ती के दर्शन का जो महात्मय है, वाही महात्मय मन्दिर के शिखर के दर्शन का है।
20. शिवलिंग पर चढ़ा पदार्थ ही मिर्माल्या अर्थात त्याज्य है। जो पदार्थ शिवलिंग पर नहीं चढ़ा वह निर्माल्य नहीं है। द्वादश ज्योतिलिंगों में शिवलिंग पर चढ़ा पदार्थ भी निर्माल्य नहीं है।
21. जिस मूर्ती क़ी प्राणप्रतिष्ठा हुई हो, उसी में सूतक लगता है। अतः उसकी पूजा ब्रह्मण अथवा बहन- बेटी से करानी चाहिए। परन्तु जिस मूर्ती क़ी प्राणप्रतिष्ठा नहीं क़ी गयी हो, उसमें सूतक नहीं लगता। कारण क़ी प्राणप्रतिष्ठा बिना ठाकुरजी गहर के सदस्य क़ी तरह ही है; अतः उनका पूजन सूतक में भी किया जा सकता है।
22. घर में जो मूर्ती हो, उसका चित्र लेकर अपने पास रखें। कभी बहार जाना पड़े तो उस चित्र क़ी पूजा करें। किसी कारणवश मूर्ती खण्डित हो जाए तो उस अवस्था में भी उस चित्र क़ी ही पूजा करें।
23. घर में राखी ठाकुर जी क़ी मूर्ती में प्राणप्रतिष्ठा नहीं करानी चाहिए।
24. किसी स्त्रोत का महात्मय प्रत्येक बार पढने क़ी जरुरत नहीं। आरम्भ और अंत में एक बार पढ़ लेना चाहिए।
25. जहाँ तक शंख और घंटे क़ी आवाज क़ी आवाज जाती है, वहां तक पीरोगता, शांति, धार्मिक भाव फैलते है।
26. कभी मन में अशांति, हलचल हो तो 15-20 मिनट बैठकर राम-नाम का जप करो अथवा 'आगमापायिनोSनित्या:' (गीता 1/14) - इसका जप करो, हलचल मिट जायेगी।
27. कोई आफत आ जाए तो 10-15 मिनट बैठकर नामजप करो और प्रार्थना करो तो रक्षा हो जायेगी। सच्चे हृदय से क़ी गयी प्रार्थना से तत्काल लाभ होता है।
28. घर में बच्चो से प्रतिदिन घंटा-डेढ घण्टा भगवानाम का कीर्तन करवाओ तो उनकी जरूर सदबुद्धि होगी और दुर्बद्धि दूर होगी।
29. 'गोविन्द गोपाल की जय' - इस मंत्र का उच्चारण करने से संकल्प- विकल्प मिट जाते हैं।, आफत मिट जाती है।
30. नाम जप से बहुत रक्षा होती है। गोरखपुर में प्रति बारह वर्ष प्लेग आया करता था। भाई जी श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार ने एक वर्ष तक नामजप कराया तो फिर प्लेग नहीं आया।
31. कोई रात-दिन राम-राम कर्ना शुरु कर दे तो उस्के पास अन्न, जल, वस्त्र आदि की कमी नहीं रहेगी।
32. प्रहलाद की तरह एक नामजप में लग जाय तो कोई जादू-टोना, व्यभिचार, मूठ आदि काम नहीं करता।
33. वास्तव में वशीकरण मन्त्र उसी पर चलता है, जिसके भीतर कामना है। जितनी कामना होगी, उतना असर होगा। अगर कोई कामना न हो तो मन्त्र नहीं चल सकता; जैसे पत्थर पर जोंक नहीं लग सकती।
34. राम्राक्षस्त्रोत, हनुमानचालीसा, सुन्दरकाण्ड का पाठ करने से अनिष्ट मन्त्रों का (मारण-मोहन आदि तांत्रिक प्रयोगों) असर नहीं होता। परन्तु इसमें बलाबल काम करेगा।
35. भगवान् का जप-कीर्तन करेने से अथवा कर्कोटक, दमयंती, नल और ऋतुपणर्का नाम लेने से कलियुग असर नहीं करता।
36. कलियुग से बचने के लिये हरेक भाई-बहिन को नल-दमयंती क़ी कथा पढनी चाहिए। नल-दमयंती क़ी कथा पढने से कलियुग का असर नहीं होगा, बुद्द्नी शुद्ध होगी।
37. छोटे गरीब बच्चों को मिठाई, खिलौना आदि देकर राजी करने से बहुत लाभ होता है और शोक-चिंता मिटते हैं, दुःख दूर होता है। इसमें इतनी शक्ति है क़ी आपका भाग्य बदल सकता है। जिनका ह्रदय कठोर हो, वे यदी छोटे-छोटे गरीब बच्चों को मिठाई खिलायें और उन्हें खाते हुए देखें तो उनका ह्रदय इतना नरम हो जाएगा क़ी एक दिन वे रो पड़ेंगे!
38. छोटे ब्रह्मण-बालकों को मिठाई, खिलौना आदि मनपसंद वस्तुएं देने से पितर्रदोष मिट जाता है।
39. कन्याओं को भोजन कराने से शक्ति बहुत प्रसन्न होती है।
40. रात्री सोने से पहले अपनी छाया को तीन बार कह दे कि मुझे प्रात: इतने बजे उठा देना तो ठीक उतने बजे नींद खुल जायेगी। उस समय जरुर उठ जाना चाहिए।
41. जो साधक रात्री साढे ग्यारह से साढे बारह बजे तक अथवा ग्यारह से एक बजे तक जागकर भजन-स्मरण, नाम-जप करता है, उसको अंत समय में मूरचा नहीं आती और भगवान् क़ी स्मृति बनी रहती है।
42. सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोना नहीं चाहिए। सूर्योदय के बाद उठने से बुद्धि कमजोर होती है, और सूर्योदय से पहले उठने से बुद्धि का विकास होता है। अतः सूर्योदय होने से पहले ही उठ जाओ और सूर्य को नमस्कार करो। फिर पीछे भले ही सो जाओ।
43. प्रतिदिन स्नान करते समय 'गंगे-गंगे' उच्चारण करने क़ी आदत बना लेनी चाहिए। गंगा के इन नामों का भी स्नान करते समय उच्चारण करना चाहिए - 'ब्रह्मकमण्डुली, विष्णुपादोदकी, जटाशंकरी, भागीरथी,जाहन्वी' । इससे ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश- तीनों का स्मरण हो जाता है।
44. प्रतिदिन प्रातः स्नान के बाद गंगाजल का आचमन लेना चाहिए। गंगाजल लेने वाला नरकों में नहीं जा सकता। गंगाजल को आग्पर गरम नहीं करना चाहिए। यदि गरम करना ही हो तो धुप में रखकर गरम कर सकतें है। सूतक में भी गंगा-स्नान कर सकते हैं।
45. सूर्य को जल देने से त्रिलोकी को जल देने का महात्मय होता है। प्रातः स्नान के बाद एक ताम्बे के लोटे में जल लेकर उसमें लाल पुष्प या कुमकुम दाल दे और 'श्रीसूर्याय नम:' अथवा 'एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाध्य दिवाकर॥' कहते हुए तीन बार सूर्यको जल दे।
46. प्रत्येक कार्य में यह सावधानी रखनी चाहिए क़ी समय और वास्तु कम-से-कम खर्च हों।
47. रोज़ प्रातः बड़ों को नमस्कार करना चाहिए। जो प्रातः बड़ों को नमस्कार करते हैं, वे नमस्कार करने योग्य हैं।
48. प्रत्येक बार लघुशंका करने के बाद इन्द्रिय और मुख को ठण्डे जल से तथा पैरों को गरम जल से धोना चाहिए। इससे आयु बढती है।
49. कोई हमारा चरण - स्पर्श करे तो आशीर्वाद न देकर भगवान् का उच्चारण करना चाहिए।
50. किसी से विरोध हो तो मन से उसकी परिक्रमा करके प्रणाम करो तो उसका विरोध मिटता है, द्वेष-वृत्ति मिटती है। इससे हमारा वैर भी मिटेगा। हमारा वैर मिटने से उसका भी वैर मिटेगा।
51. कोई व्यक्ति हमसे नाराज हो, हमारे प्रति अच्छा भाव न रखता हो तो प्रतिदिन दुबह-शाम मन इ उसकी परिक्रम करके दंडवत प्रणाम करें। ऐसा करने से कुछ ही दिनों में उसका भाव बदल जाएगा। फिर वह व्यक्ति कभी मिलेगा तो उसके भावों में अंतर दीखेगा। भजन-ध्यान करने वाले साधक के मानसिक प्रणाम का दुसरे पर ज्यादा असर पड़ता है।
52. किसी व्यक्ति का स्वभाव खराब हो तो जब वह गहरी नींद में सोया हो, तब उसके श्वासों के सामने अपने मुख करके धीरे से कहिएं क़ी तुम्हारा स्वभाव बड़ा अच्छा है, तुम्हारे में क्रोध नहीं है, आदि। कुछ दिन ऐसा करने से उसका स्वभाव सुधरने लगेगा।
53. अगर बेटे का स्वभाव ठीक नहीं हो तो उसे अपना बेटा न मानकर, उसमें सर्वदा अपनी ममता छोड़कर उसे सच्चे ह्रदय से भगवान् के अर्पण कर दे, उसे भगवान् का ही मान ले तो उसका स्वभाव सुधर जाएगा।
54. गाय की सेवा करने से सब कामनाएं सिद्ध होती है। गाय को सहलाने से, उसकी पीठ आदि पर हाथ फेरने से गाय प्रसन्न होती है। गाय के प्रसन्न होने पर साधारण रोगों क़ी तो बात ही क्या है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी मिट जाते हैं। लगभग बारह महीने तक करके देखना चाहिए।
55. गाय के दूध, घी, गोबर-गोमूत्र आदि में जीवनी-शक्ति रहती है। गाय के घी के दीपक से शांति मिलती है। गाय का घी लेने से विषैले तथा नशीली बस्तु का असर नस्त हो जाता है। परन्तु बूढी अशुद्ध होने से अच्छी चीज भे बुरी लगती है, गाय के घी से भी दुर्गन्ध आती है।
56. बूढी गाय का मूत्र तेज होता है और आँतों में घाव कर देता है। परन्तु दूध पीने वाली बछडी का मूत्र सौम्य होता है; अतः वाही लेना चाहिए।
57. गायों का संकरीकरण नहीं करना चाहिए। यह सिद्धांत है क़ी शुद्ध चीज में अशुद्ध चीज मिलें से अशुद्ध क़ी ही प्रधानता हो जायेगी; जैसे-छाने हुए जल में अन्चाने जल क़ी कुछ बूंदे डालने से सब जल अन्चाना हो जाएगा।
58. कहीं जाते समय रास्ते में गाय आ जाए तो उसे अपनी दाहिनी तरफ करके निकलना चाहिए। दाहिनी तरफ करे से उसकी परिक्रमा हो जाती है।
59. रोगी व्यक्ति को भगवान् का स्मरण कराना सबसे बड़ी और सच्ची सेवा है। अचिक बीमार व्यक्ति को सांसारिक लाभ-हानि क़ी बातें नहीं सुनानी चाहिए। छोटे बच्चों को उसके पासा नहीं ले जाना चाहिए; क्योकि बच्चों में स्नेह अधिक होने से उसकी वृत्ति उनमें चली जायेगे।
60. रोगी व्यक्ति कुछ भी खा- पी लेना सके तो गेहूं आदि को अग्नि में डालर उसका धुंआ देना चाहिए। उस धुंए से रोगी को पुष्टि मिलती है।
61. भगवनाम अशुद्ध अवस्था में भी लेना चाहिए। कारण क़ी बिमारी में प्राय: अशुधि रहती है। यदि नामे लिये बिना मर गए तो क्या दशा होगी? क्या अशुद्ध अवस्था में श्वास नहीं लेते? नामजप तो श्वास से भी अधिक मूल्यवान है।
62. मरणासन्न व्यक्ति के सिरहाने गीताजी रखें। डाह-संस्कार के समय उस गीताजी को गंगाजी में बहा दे, जलायें नहीं।
63. यदि रोगी के मस्तक पर लगाया चन्दन जल्दी सूख जाय तो समझें क़ी ये जल्दी मरने वाला नहीं है। मृत्यु के समीप पहुंचे व्यक्ति उसके मस्तक क़ी गर्मी चली जाती है, मस्तक ठंडा हो जाता है।
64. शव के दाह-संस्कार के समय मृतक के गले में पड़ी तुलसी क़ी माला न निकालें, पर गीताजी हो तो निकाल देनी चाहिए।
65. अस्पताल में मरने वाले क़ी प्राय: सदगति नहीं होती। अतः मरनासन व्यक्ति यदी अस्पताल में हो तो उसे घर ले आना चाहिए।
66. श्राद्ध आदि कर्म भारतीय तिथि के अनुसार करने चाहिए, अंग्रेजी तारीख के अनुसार नहीं। (भारत आजाद हो गया, अपर भीतर से गुलामी नहीं गयी। लोग अंग्रेजी दिनाक तो जानते हैं, पर तिथि जानते ही अन्हीं!)
67. किसी व्यक्ति क़ी विदेश में मृत्यु हो जाय तो उसके श्राद्ध में वहां क़ी तिथि न लेकर भारत क़ी तिथि ही लेनी चाहिए अर्थात उसकी मृत्यु के समय भारत में जो तिथि हो, उसी तिथि में श्राद्धादि करना चाहिए।
68. श्राद्धका अन्न साधुको नहीं देना चाहिए, केवल ब्राहम्ण को ही देना चाहिए।
69. घर में किसी क़ी मृत्यु होने पर सत्संग, मन्दिर और तीर्थ- इन तीनों में शोक नहीं रखना चाहिए अर्थात इन तीनों जगह जरुर जाना चाहिए। इनमें भी सत्संग विशेष है। सत्संग से शोक्का नाश होता है।
70. किसी क़ी मृत्यु से दुःख होता है तो इसके दो कारन हैं- उससे सुख लिया है, और उससे आशा रखी है। मृतात्मा क़ी शांति और अपना शोक दूर करने के लिये तीन उपाय करने चाहिए - 1) मृतात्मा को भगवान् के चरणों में बैठा देखें 2) उसके निमित्त गीता, रामायण, भगवत, विष्णुसहस्त्रनाम आदि का पाठ करवाएं 3) गरीब बालकों को मिठाई बांटें।
71. घर का कोई मृत व्यक्ति बार-बार स्वप्न में आये तो उसके निमित्त गीता-रामायण का पाठ करें, गरीब बालकों को मिठाई खिलायें। किसी अच्छे ब्रह्मण से गया-श्राद्ध करवाएं। उसी मृतात्मा अधिक याद आती है, जिसका हम पर ऋण है। उससे जितना सुख-आराम लिया है, उससे अधिक सुख-आराम उसे न दिया जाय, तब तक उसका ऋण रहता है। जब तक ऋण रहेगा, तब तक उसकी याद आती रहेगी।
72. यह नियम है कि दुखी व्यक्ति ही दुसरे को दुःख देता है। यदी कोई प्रेतात्मा दुःख दे रही है तो समझना चाहिए क़ी वह बहुत दुखी है। अतः उसके हित के लिये गया-श्राद्ध करा देना चाहिए।
73. कन्याएं प्रतिदिन सुबह-शाम सात-सात बार 'सीता माता' और 'कुंती माता' नामों का उच्चारण करें तो वे पतिव्रता होती हैं।
74. विवाह से पहले लड़के-लड़की का मिलना व्यभिचार है। इसे मैं बड़ा पाप मानता हूँ।
75. माताएं-बहनें अशुद्ध अवस्था में भी रामनाम लिख सकती हैं, पर पाठ बिना पुस्तक के करना चाहिए। यदी आवश्यक हो तो उन दिनों के लिये अलग पुस्तक रखनी चाहिए। अशुद्ध अवस्था में हनुमान चालीसा स्वयं पाठ न करके पति से पाता कराना चाहिए।
76. अशुद्ध अवस्था में माताएं तुलसी क़ी माला से जप न करके काठ क़ी माला से जप करें, और गंगाजी में स्नान न करके गंगाजल मंगाकर स्नानघर में स्नान करें। तुलसी क़ी कण्ठीतो हर समय गले में रखनी चाहिए।
77. गर्भपात महापाप है। इससे बढ़कर कोई पाप नहीं है। गर्भ्पाप करनेवाले क़ी अगले जन्म में कोई संतान नहीं होती।
78. स्त्रियों को शिवलिंग, शालग्राम और हनुमानजी का स्पर्श कदापि नहीं करना चाहिए। उनकी पूजा भी नहीं करनी चाहिए। वे शिवलिंग क़ी पूजा न करके शिवमूर्ति क़ी पूजा कर सकती हैं। हाँ, जहाँ प्रेमभाव मुख्य होता है, वहां विधि-निषेध गौण हो जाता है।
79. स्त्रियों को रूद्राक्ष क़ी माला धारण नहीं करनी चाहिए। वे तुलसी क़ी माला धारण करें।
80. भगवान् क़ी जय बोलने अथवा किसी बात का समर्थन करने के समय केवल प्रुर्शों को ही अपने हाथ ऊँचें करने चाहिए, स्त्रियों को नहीं।
81. स्त्री को गायत्री-जप और जनेऊ-धारण करने का अधिकार नहीं है। जनेऊ के बिना ब्रह्मण भी गायत्री-जप नहीं कर सकता है। शरीर मल- मूत्र पैदा करने क़ी मशीन है। उसकी महत्ता को लेकर स्त्रियों को गायत्री-जप का अधिकार देते हैं तो यह अधिकार नहीं, प्रत्युत धिक्कार है। यह कल्याण का रास्ता नहीं है, प्यात्युत केवल अभिमान बढाने के लिये है। कल्याण चाहने वाली स्त्री गायत्री-जप नहीं करेगी। स्त्री के लिये गायत्री-मंत्र का निषेध करके उसका तिरस्कार नहीं किया है, प्रत्युत उसको आफत से चुदाय है। गायत्री-जप से ही कल्याण होता हो- यह बात नहीं है। राम-नाम का जप गायत्री से कम नहीं है। (सबको सामान अधिकार प्राप्त हो जय, सब बराबर हो जाएँ - ऐसी बातें कहने-सुनने में तो बड़ी अच्छी दीखती हैं, पर आचरण में लाकर देखो तो पता लगे! सब गड़बड़ हो जाएगा! मेरी बातें आचरण में ठीक होती है।)
82. पति के साधु होने पर पत्नी विधवा नहीं होती। अतः उसे सुहाग के चिन्ह नहीं छोड़ने चाहिए।
83. stri परपुरुष का और पुरुष परस्त्री का स्पर्श न करे तो उनका तेज बढेगा। पुरुष मान के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करे, पर अन्य सब स्त्रियों को दूर से प्रणाम करे। स्त्री पति के चरण-स्पर्श करे, पर ससुर आदि अन्य पुरुषों को दूर से प्रणाम करे। तात्पर्य है क़ी स्त्री को पति के सिवाय किसी के भी चारण नहीं चूने चाहिए। साधू-संतों को भी दूर से पृथ्वी पर सर टेककर प्रणाम करना चाहिए।
84. दूध पिलाने वाली स्त्री को पति का संग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से दूध दूषित हो जाता है, जिसे पीने से बच्चा बीमार हो जाता है।
85. कुत्ता अपनी तरफ भौंकता हो तो दोनों हाटों क़ी मुठ्ठी बंद कर लें। कुछ देर में वह चुप हो जाएगा।
86. मुसलमान लोग पेशाब को बहुत ज्यादा अशुद्ध मानते हैं। अतः गोमूत्र पीने अथवा छिड़कने से मुस्लिम तंत्र का प्रभाव कट जाता है।
87. कहीं स्वर्ण पडा हुआ मिल जाय तो उसे कभी उठाना नहीं चाहिए।
88. पान भी एक श्रृंगार है। यह निषिद्ध वास्तु नहीं है, पर ब्रह्मचारी, विधवा और सन्यासी के लिये इसका निषेध है।
89. पुरुष की बायीं आँख ऊपर से फडके तो शुभ होती है, नीचे से फडके तो अशुभ होती है। कान क़ी तरफ वाला आँख का कोना फडके तो अशुभ होता है और नाक क़ी तरफ्वाला आँख का कोना फडके तो शुभ होता है।
90. यदि ज्वर हो तो छींक नहीं आती। छींक आ जाय तो समझो ज्वर गया! छींक आना बीमारी के जाने का शुभ शकुन है।
91. शकुन मंगल अथवा अमंगल - 'कारक' नहीं होते, प्रत्युत मंगल अथवा अमंगल - 'सूचक होते हैं।
92. 'पूर्व' क़ी वायु से रोग बढ़ता है। सर्प आदि का विष भी पूर्व क़ी वायु से बढ़ता है। 'पश्चिम' क़ी वायु नीरोग करने वाली होती है। 'पश्चिम' वरुण का स्थान होने से वारूणी का स्थान भी है। विघुत तरंगे, ज्ञान का प्रवाह 'उत्तर' से आता है। 'दक्षिण' में नरकों का स्थान है। 'आग्नेय' क़ी वायु से गीली जमीन जल्दी सूख जाती है; क्योंकि आगनेय क़ी वायु शुष्क होती है। शुष्क वायु नीरोगता लाती है। 'नैऋत्य' राक्षसों का स्थान है। 'ईशान' कालरहित एवं शंकर का स्थान है। शंकर का अर्थ है - कल्याण करने वाला।
93. बच्चों को तथा बड़ों को भी नजर लग जाती है. नजर किसी-किसी की ही लगती है, सबकी नहीं. कईयों की दृष्टि में जन्मजात दोष होता है और कई जान-बूझकर भी नजर लगा देते हैं. नजर उतरने के लिये ये उपाय हिं- पहला, साबत लालमिर्च और नमक व्यक्ति के सिर पर घुमाकर अग्नि में जला दें. नजर लगी होगी तो गंध नहीं आयेगी. दूसरा, दाहिने हाथ की मध्यमा-अनामिका अँगुलियों की हथेली की तरफ मोड़कर तर्जनी व कनिष्ठा अँगुलियों को परस्पर मिला लें और बालक के सिर से पैर तक झाड दें। ये दो अंगुलियाँ सबकी नहीं मिलती. तीसरा, जिसकी नजर लगी हो, वह उस बालक को थू-थू-थू कर दे, तो भी नजर उतर जाती है।
94. नया मकान बनाते समय जीवहिंसा होती है; विभिन्न जीव-जंतुओं की स्वतन्त्रता में, उनके आवागमन में तथा रहने में बाधा लगती है, जो बड़ा पाप है. अतः नए मकान की प्रतिष्ठा का भोजन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है।
95. जहाँ तक हो सके, अपना पहना हुआ वस्त्र दूसरे को नहीं देना चाहिए।
96. देवी की उपासना करने वाले पुरूष को कभी स्त्री पर क्रोध नहीं करना चाहिए।
97. एक-दूसरे की विपरीत दिशा में लिखे गए वाकया अशुभ होते हैं. इन्हें 'जुंझारू वाक्य' कहते हैं.।
98. कमीज, कुरते आदि में बायाँ भाग (बटन लगाने का फीता आदि) ऊपर नहीं आना चाहिए. हिन्दू-संस्कृति के अनुसार वस्त्र का दायाँ भाग ऊपर आना चाहिए।
99. मंगल भूमिका पुत्र है; अतः मंगलवार को भूमि नहीं खोदनी चाहिए, अन्यथा अनिष्ट होता है. मंगलवार को वस्त्र नापना, सिलना तथा पहनना भी नहीं चाहिए।
100. नीयत में गड़बड़ी होने से, कामना होने से और विधि में त्रुटी होने से मंत्रोपासक को हानि भी हो सकती है. निष्काम भाव रखने वाले को कभी कोई हानि नहीं हो सकती।
101. हनुमानचालीसा का पाठ करने से प्रेतात्मा पर हनुमान जी की मार पड़ती है।
102. कार्यसिद्धि के लिये अपने उपास्यदेव से प्रार्थना करना तो ठीक है, पर उन पर दबाव डालना, उन्हने शपथ या दोहाई देकर कार्य करने के लिये विवश करना, उनसे हाथ करना सर्वथा अनुचित है. उदाहरणार्थ, 'बजरंगबाण' में हनुमानजी पर ऐसा ही अनुचित दबाव डाला गया है; जैसे- 'इन्हें मारू, तोही सपथ राम की.', 'सत्य होहु हरि सपथ पाई कई.', 'जनकसुता-हरि-दास कहावै. ता की सपथ, विलम्ब न लावे..', 'उठ, उठ, चालू, तोही राम दोहाई'. इस तरह दबाव डालने से उपास्य देव प्रसन्न नहीं होते, उलटे नाराज होते हैं, जिसका पता बाद में लगता है. इसलिए मैं 'बजरंगबाण' के पाठ के लिये मना किया करता हूँ. 'बज्रंग्बान' गोस्वामी तुलसीदासजी की रचना नहीं है. वे ऐसी रचना कर ही नहीं सकते।
103. रामचरितमानस एक प्रासादिक ग्रन्थ है. जिसको केवल वर्णमाला का गया है, वह भी यदि अंगुली रखकर रामायण के एक-दो पाठ कर ले तो उसको पढना आ जायेगा. वह अन्य पुस्तकें भी पढ़ना शुरू कर देगा।
104. रामायण के एक सौ आठ पाठ करने से भगवान के साथ विशेष संबंध जुड़ता है।
105. रामायण का नवाह्न-पारायण आरम्भ होने पर सूआ-सूतक हो जाय तो कोई दोष नहीं लगता।
106. रामायण का पाठ करने से बुद्धि विक्सित होती है. रामायण का नावाह्न पाठ करने वाला विद्यार्थी कभी फेल नहीं होता।
107. कमरदर्द आदि के कारण कोई लेटकर रामायण का पाठ चाहे तो कर सकता है. भाव का मूल्य है. भाव पाठ में रहना चाहिए, शरीर चाहे जैसे रहे।
108. पुस्तक उल्टी नहीं रखनी चाहिए. इससे उसका निरादर होता है. सभी वस्तुएँ भगवत्स्वरूप होने से चिन्मय है। अतः किसी की वास्तु का निरादर नहीं करना चाहिए. किसी आदरणीय वास्तु का निरादर करने से वह वास्तु नष्ट हो जाती है,अथवा उसमें विकृति आ जाती है, यह मेरा अनुभव है।गुरु कृपा केवलं।
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