पाप ग्रह और नंग

शास्त्रकारों ने जन्म कुंडली में ग्रहों को मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित किया है। एक को शुभ ग्रह कहा तथा दूसरे को पाप ग्रहा इसी प्रकार शुभ भाव और पाप भाव, शुभ स्थिति तथा पाप स्थिति इन बातों का आधार मान कर ही फलाफल करने की प्रथा प्रचालित हुई। विद्वानों ने मंगल, राहु, केतु शनि तथा कुछ ने सूर्य को भी नैसर्गिक पापी माना। बुध, शुक्र तथा गुरू को सौभ्य या शुभग्रह माना। चन्द्रमा के विषय में कोई विशेष धारणा व्यक्त नहीं की गई। क्षीण चन्द्र का फल अशुभ पाया गया है। क्षीण चन्द्र का तात्पर्य कुण्डली में सूर्य ग्रह से 72 डिग्री के अन्दर आगे या पीछे माना है। उसके आगे पीछे चन्द्रमा क्षीण नहीं होता।

ग्रहों के विषय में शुभ या अशुभ का माप दण्ड क्या है? मैं अब तक समझ नहीं पाया। पापी ग्रह हम किसे कहेगें? सूर्य ग्रह आत्मा का कारक है। आत्मा को हम क्रूर या पापी की संज्ञा कैसे देगे? चन्द्रमा मन का घोतक है। शनि ग्रह सूर्य के पुत्र हैं। बुध ग्रह चन्द्रमा की संतान है | इसे क्या पापी कहेंगे? मंगल भूमि पुत्र कहा गया है। राहु-केतु तो एक छाया ग्रह है। इसकी अपनी शक्ति कहां?

अपने अनुभव में हमने शुरू जैसे शुभ ग्रह को कई बार मारक होते हुए देखा है। बुध और शुक्र भी कई बार दुख: और मृत्यु के कारण बन जाते हैं। गुरू ज्ञान का कारक होते हुए भी अशुभ स्थिति में अपनी शुभता खो बैठता है। जैसे कोई बुद्धिशाली व्यक्ति यदि गलत रास्ते पर भटक जाये तो खतरनाक बन जाता है। अपनी तेज बुद्धि का वह दुरुपयोग करने लगता है। इसी प्रकार गुरू चूंकि बहुत ज्ञानी तथा बुद्धिशाली ग्रह है। अतः कुंडली में यदि वह अपने दोनों भावों से अशुभ स्थिति में यदि बैठ जाये तो अपना विवेक और पवित्रता खो बैठता है। ऐसी स्थिति में वह गलत कार्य ही करता है। शनि राहु जैसे ग्रह तो निम्नकोटि के ग्रह माने गये हैं। इन ग्रहों की यदि शांति कराई जाये तो उनकी अशुभता नष्ट हो जाती है। परन्तु गुरू जैस तीक्षण बुद्धिवाले ग्रह को शान्त कराना कठिन है। यदि यह बहक गया तो दुष्परिणाम अवश्य होगा।

बुध ग्रह की चर्चा करे। बुध एक द्विस्वभाव राशि वाला एक नपुंसक ग्रह है। इसकी अपनी कोई विशेष शक्ति या प्रतिभा नहीं। यह जिस राशि या भाव में कुंडली के अन्दर बैठता है, उसी के अनुरूप फल देता है। यदि शुभ राशि या शुभ भाव में कारक ग्रह के साथ बैठे तो शुभ फल देगा और यदि अशुभ भाव में, अकारक राशि के साथ या वक्री अवस्था में कहीं बैठ जाये तो अशुभ फल ही देगा। जैसे बुध यदि सूर्य और मंगल जैसे प्रचंड और अग्नि कारक ग्रह के साथ यदि बैठ जाये तो यह भी उसकी गर्मी ग्रहण करके स्वयं भी उसी के अनुसार फल देने लगता है। यदि बुध इसी अवस्था में वक्री हो जाये तो और भी क्रूर बन सकता है। तब वह सूर्य मंगल का दुष्प्रभाव स्वयं खींचकर पापी बन सकता है।

शुक्र एक आनन्द-प्रमोद में लीन रहनेवाला ग्रह है। इसे सिर्फ सुख की चाह है। संगीत कला तथा भौतिक सुविधा प्राप्त करने की इच्छा में स्वार्थी बन जाता है। इसे दीन दुनिया की क्या फिक्र होगी? इसे खूद अपना होश नहीं शुक्र ग्रह की अशुभ स्थिति जातक को उल्टी दिशा में ही ले जाता है। कुण्डली में यदि यह ग्रह अकारक हो तो शुभ भाव को पीड़ित कर देगा। पाप अवस्था में यह जातक को भूलावे में रखाकर मारक बन जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुंडली में कोई भी ग्रह यदि अकारक हो तो पापी बन जाता है। गोचर में विचरण करने वाले किसी भी ग्रह को हम दावे के साथ शुभ नहीं कह सकते। इस बात को कुछ उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है।

प्राचीन काल से अब तक विद्वानों ने केन्द्रश (लग्न, चतुर्थ, सप्तम तरी दशम) स्थान में शुरू की उपस्थिति को अत्यंत ही शुभ माना है।
केन्द्र स्थल में स्थिति शुरू सर्वबाधाओं की दूर करता है तथा दीर्घजीवी बनाता है। परन्तु अनुभव और प्रयोग से मेरी धारणा, सत्य प्रतिशत इस बात को नहीं मानती। केन्द्रेश शुरू शुभ अवश्य है, किन्तु हर लग्न में नहीं। कुंभ लग्न के प्रथम भाव में बैठा। ગુરૂ को मैं शुभ नहीं मानता। विशेषकर यदि वह राहु या मंगल जैसे ग्रह के साथ पीड़ित होकर बैठा हो। कुम्भ लग्न में शुरू द्वितीये भाव तथा एकादश भाव का स्वामी होता है। यदि वह लग्न में बैठे तो यह उसकी अशुभ स्थिति होगी, क्यों कि वह द्वितीये भाव से द्वादश स्थान तथा एकादश भाव से तृतिये स्थान में स्थित है।

कुंडली में त्रिक स्थान (तृतिये, षष्ठ, अष्ठम एवं द्वादश भाव) को अशुभ स्थान कहा गया है। यह बिल्कुल सही है। यह बात फलादेश करते वख्त सदैव याद रखनी चाहिए। कोई भी ग्रह अपनी भूल राशि से 3, 6, 8 या 12 भाव में बैठा हो तो वह अशुभ फल देगा। वह भाव या राशि कोई भी हो सकती है। कोई भी ग्रह अपने से 3, 6, 8, 12 भाव में जिस राशि या भाव में बैठता है, उस से संबंधित हानि करता है। उपर के उदहारण में कुंभ लग्न में प्रथम भाव का गुरू अपनी अशुभ स्थिति में तन भाव (शरीर) की हानि या कष्ट देगा।

अब प्रश्न यह है कि किसी ग्रह की अशुभ स्थिति क्या सदा बूरा ही फल देती है ? नहीं, हमेशा नहीं। कुंडली में ग्रह की बूरी स्थिति अपनी दशा में ही उस भाव से संबंधित फल में अशुभ फल देता है। जैसे मेष लग्न की कुंडली से यदि उदाहरण प्रस्तुत करें तो पायेगे कि एकादश भाव में बैठा गुरू पापी बन जाता है। मेष लग्न में अकारक गुरू नवम तथा द्वादश भाव अशुभ है। अतः शुरू आधा पापी बन जाता है। यदि वह एकादश स्थान में बैठे तो यह उस कुण्डली की सबसे खराब स्थिति कहलायेगी। यह अपने दोनों भावों नवम से तृतिये तथा द्वादश से द्वादश भाव में अशुभ तथा अकारक होने के कारण पापी बन जायेगा। चूंकि वह एकादश भाव में बैठा है, अतः आय एवं बड़े भाई को अनिष्ठ फल देगा। शुरू की दश में निश्चय ही बड़े भाई या बहन की मृत्यु होती है।
इसी प्रकार मेष लग्न में दशम भाव का गुरू भी जातक की कुण्डली में मारक बन जाता है। इसका कारण यह है कि यह आयु स्थान (अष्ठम) से तृतिये तथा तृतिये भवन से अष्ठम स्थान में स्थित है। यहां शुरू निर्बल हो जाता है। अतः आयु को नाश करेगा।

मेष लग्न में पंचम भाव का बुध भी अकारक होता है। तृतिये भाव मिथुन राशि का स्वामी बुध पंचम भाव में अपने से तृतिये स्थान होगा और षष्ठ स्थान से द्वादश भाव की स्थिति होगी। अतः यह संतान तथा शिक्षा संबंधी अशुभ फल बुल की दशा में देगा। विशेषकर तबजब पंचम भाव पर किसी ग्रह की दृष्टि हो तथा पंचमेश और बुध ग्रह भी गोचर में अशुभ स्थिति में आ जाये । इसी प्रकार मेष लग्न में यदि नवम भाव में शुक्र हो तो अपनी दशा में माता के लिए खराब फल देगा। शुक्र द्वितीयेश होकर अपने से अष्ठम तथा सप्तमेश होकर अपने तृतिये स्थिति में कैसे शुभ फल देगा? यह मातृ स्थान (चतुर्थ भाव) से चूंकि षष्ठ स्थान में बैठा है, अतः माता के लिए अशुभ ही करेगा।

बृषभ लग्न में चतुर्थ भाव का बुध भी अशुभ स्थिति का कहलायेगा। यह अपने दोनों (मिथुन और कन्या राशियों से बूरे भाव में बैठा है। चतुर्थ स्थान चूंकि माता का भाव है अतः माता के लिए बूरा फल ही देगा। बृषभ लग्न में शुक्र की दशा में आर्थिक तथा शारीरिक कष्ट मिलता है । इस लग्न में शुक्र की त्रिकोण राशि षष्ठ स्थान होती है। अतः यह लग्न का फल न देकर षष्ठ (रोग भाव) का फल देगा। ऐसे में यदि लग्नेश शुक्र अष्ठम में बैठे तो यह अपने दोनों राशियों बृषभ (लग्नेश) से अष्ठम तथा क्रूर ग्रह की दृष्टि तैय करती है। इसी प्रकार बृषभ लग्न का मंगल द्वितीये भाव में तथा दशम भाव का गुरु अपनी दशा में अशुभ फल देगा।

मिथुन लग्न की एक कुंडली में मैंने एक आठ वर्ष की बच्ची को कैंसर से मरते देखा है। इसका लग्नेश बुध तृतिये स्थान में पाप ग्रहों से पीड़ित था। बुध लग्नेश अपने से तृतिये और चतुर्थेश अपने से द्वादश स्थिति में बैठा था मिथुन लग्न की अन्य कुंडली में सप्तम में शुक्र तथा नवम में शुरू की दोनों स्थिति अशुभ कहीं जायेगी। इसकी दशा खाराब ही जायेगी।

मिथुन लग्न की एक कुंडली में नवम भाव में वक्री शुरू मैंने 17 वर्ष की एक बच्चे की देखी, जिसकी पानी में डूबने से मृत्यु हई। द्वित भाव में राहु मंगल, अष्ठम में शनि और केतु था। गुरु की महादशा में केतु की अन्तर्दशा में उसकी मृत्यु का कारण थी | सप्रमेश तथा दशमेश् शुरू की स्थिति अपने से अशुभ भाव में थी।

कर्क लग्न की एक कुन्डली में गुरू सबसे अशुभ और मंगल सबसे शुभ होता है। यदि गुरू सप्तम में नीचे का हो तो पत्नी भाव को प्रभावित करेगा। तथा अष्ठम भाव में अशुभ स्थिति आयु को कम करेगा। इस लग्न में षष्ठ स्थान का शुक्र भी अपनी दशा में परेशानी देता है। लग्न में शनि पति सुख कम करेगा।

सिंह लग्न में सप्तम स्थान का शुरू पत्नी भाव को पीड़ित करेगा तो लग्न में बुध खुद जातक पर दुष्प्रभाव डालेगा। इसका कारण इन ग्रहों की अशुभ स्थिति आप खुद देख सकते हैं। फिर अपनी दशा में यह कैसे बूरा फल नहीं देंगे? यदि अकारक या क्रूर दृष्टि किसी अन्य ग्रह की हो तो फिर भगवान हीं बचाये।

कन्या लग्न में यदि बुध द्वादश में पीड़ित हो और उसकी दशा चले तो वह ठीक नहीं कही जायेगी। उसी प्रकार षष्ठ में शुरू, या दशम में मंगल की स्थिति भी पापमय होगी।

सूर्य और चन्द्रमा को छोड़कर सभी ग्रह कुंडली में दो भावों के स्वामी होते हैं कोई भी ग्रह अपने एक भाव से तृतिय, षष्ठ, अष्ठम या द्वादश भाव में हो तो अशुभ फल देगा। चाहे वह कोई भी ग्रह हो । यदि कोई ग्रह अपने दोनों भावों से अशुभ स्थिति में चला जाये तो अपनी दशा में ज्यादा बूरा फल देगी। सूर्य और चन्द्रमा भी अपने भाव से 3, 6, 8, या 12 में बैठे तो अपनी दशा में भाव संबंधी दुष्परिणाम देगा।

तुला लग्न में भाग्य स्थान का मंगल, तृतिये में शुक्र पंचम में शुरू और एकादशा का बुध अपनी महादशा में शुभता प्रदान करने के बदले अनिष्ठ कर सकता है। पुराने सिद्धान्त के अनुसार त्रिकोण में कोई भी ग्रह शुभ फल देते हैं। परन्तु उपर के उदाहरण में यह बात सच नहीं लगत। यदि ये ग्रह किसी क्रूर ग्रह से पीड़ित हो या वक्री बन जाये कहाँ से अच्छा फल देखने को मिल सकता है ?

बृश्चिक लग्न में चतुर्थ भाव में बैठा गुरू, दशम स्थान बुध की में स्थिति शुभ नहीं कहीं जायेगी। इसी प्रकार धनु लग्न में तृतिये भाव का शुरू, नवम भाव का बुध और सप्तम का मंगल यदि किसी अन्य ग्रह से पीड़ित है तो अपनी दशा में अशुभ फल देगा। मकर लग्न में द्वितीय भाव में गुरू, अष्ठम में बुध, द्वादश में शुक्र अपनी दशा में कभी शुभ फल में नहीं देगा। मीन लग्न की एक कुंडली में नवम भाव को शुरू ने अपनी दशा में एक जोहरी की जान ले ली। उनकी कुंडली में चतुर्थ का मंगल भी पापी बन कर बैठ गया था। गुरू पर राहु और शनि की दृष्टि ने उसे और क्रूरता प्रदान कर दी।

शनि राहु और केतु स्वयं जल्दी मारक नहीं बनते। यह अपनी दृष्टि द्वारा किसी भी भाव या राशि को दुषित या पीड़ित अवश्य करते हैं। सूर्य मंगल की दृष्टि आग में घी डालते हैं। किसी भी ग्रह की अशुभ स्थिति में • शनि राहु केतु या मंगल सूर्य की दृष्टि कभी-कभी दुष्परिणाम देती है। फलादेश करते वख्त वक्री ग्रहों की स्थिति, महादशा तथा गोचर ग्रहों का तात्कालिक भ्रमण ध्यान में रखना चाहिए।

अनिष्ठ ग्रह निवारण:

कुंडली में जब कोई ग्रह अशुभ स्थिति में आ जाये तो उससे संबंधित रत्न या उपरत्न नहीं धारण करना चाहिए। ग्रहों की अशुभ स्थिति का निर्णय लग्न, चन्द्र और सूर्य कुन्डली तीनों से करना चाहिए | ऐसी स्थिति में जब कोई भी ग्रह अपनी दोनों भावों से अशुभ स्थान (3, 6, 8, 12 ) भाव में बैठे हो या गोचर में भी वह ग्रह अपने से (3, 6, 8, 12) भावों में बैठ जाये तो उससे संबंधित रत्न धारण करने से अनिष्ठ फल प्राप्त होगा।
जैसे यदि किसी का शनि कुण्डली में उच्च का हो और शनि की महादशा चल रही हो। गोचर में शनि कन्या राशि में भ्रमण कर रहा हो तो उससे संबंधित रत्न पहनने से कुछ अकल्याणकारी फल ही मिलेगा। चूंकि शनि की उस समय अपने से द्वादश स्थिति होगी अतः रत्न पहनने पर द्वादश भाव संबंधी फल, जैसे खर्च, कर्ज परेशानी और झंझट होगी

कोई भी रत्न पहन लेने से पहले कई बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। मेरे विचार से लग्न के कारक ग्रह की स्थिति यदि कुंडली में अच्छी हो तो प्रथम भाव के स्वामी के ग्रह से संबंधित रत्न पहनना चाहिए। द्वितीये प्रचम, नवम, दशम, या एकादश भाव के स्वामीका रत्न भी लाभकारी होगा। कुंडली में दो शुभ स्थान के स्वामी से संबंधित रत्न लाभकारी होते हैं। जिस ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा चल रही हो वह यदि कुंडली में अशुभ स्थिति में न हो तो उससे संबंधित रत्न अवश्य पहनना चाहिए। परन्तु भावेश की स्थिति यदि अशुभ हो तो उससे संबंधित रत्न पहनने के बदले, उस ग्रह की शान्ति करानी चाहिए। इसके लिए दान, धर्म, पूजा-पाठ नितान्त आवश्यक है। एक बात और भी ध्यान रखनी चाहिए। कोई भी शुभ रत्न सारी जिन्दगी नहीं पहनना चाहिए। इसके लिए कुछ समय के अन्तरात में विद्वान ज्योतिष का अभिप्राय जानना आवश्यक है। कोई भी रत्न पुराना या किसी का उतारा हुआ नहीं धारण करना चाहिए |

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