श्री कृष्ण कथा

कहते हैं कि जब राधा जी की मृत्यु हुई तब आखिरी बार कान्हा ने बँसी बजाई थी राधा जी के कहने पर। उसके बाद उन्होंने बाँसुरी तोड़ दी और फिर कोई भी वाद्य यंत्र नहीं बजाया।

अपनी सबसे प्रिये दोनों (राधा और बाँसुरी) को एकसाथ खो दिया था उन्होंने।

क्या आज के समय में किसी मे इतना सामर्थ्य है कि अपने प्रेमी/प्रेमिका को खोने पर इस स्तर की पीड़ा का अनुभव कर सके?

लोग मिनटों में बदल लेते हैं अपना प्यार, पर कभी कुछ त्याग नहीं पाते। 
जिंदा व्यक्ति के कहने पर नहीं कर सकते तो उसके मरने के बाद तो क्या ही फर्क पड़ेगा।

आज हर प्रेमी युगल स्वयं की "राधा कृष्ण" से तुलना करने लगता है, ईश्वर के नाम पर छल आम बात है अब।

श्री राम के नाम पर पत्नी को छोड़ देना, श्री कृष्ण के नाम पर प्रेमी/प्रेमिका को त्यागना, भोलेनाथ के नाम पर चरसी बन जाना। 
यूँ ही पतन नहीं हो रहा हिंदू धर्म का, इस विकृत मानसिकता को समझना पड़ेगा।

जब भी समाज में उपस्थित इस मनोरोग को देखती हूँ तो मन कराह उठता है और फिर से आवाज़ आती है,
"लो कान्हा जन्म धरा पर अब,
तेरे नाम से छल रहे हैं सब"

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