महासती अनुसूया माता story

महासती अनुसूया माता के पतिव्रता को कौन नहीं जानता, आज हम सती अनुसूयाजी के जीवन के पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं, सती अनुसूया महर्षि अत्रि की पत्नी थीं, अनुसूया का स्थान भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में बहुत ऊँचा है, इनका जन्म अत्यन्त उच्च कुल में हुआ था।

ब्रह्माजी के मानस पुत्र परम तपस्वी महर्षि अत्रि को इन्होंने पति के रूप में प्राप्त किया था, अपनी सतत सेवा तथा प्रेम से अनुसूयाजी ने महर्षि अत्रि के हृदय को जीत लिया था, अत्रि मुनि की पत्नी जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थीं, इन्होंने ब्रह्माजी, विष्णुजी और शिवजी को तपस्या करके प्रसन्न किया और ये त्रिदेव सोम, दत्तात्रेयजी  और दुर्वासाजी के नाम से उनके पुत्र बने।

अनुसूयाजी पतिव्रत धर्म के लिये प्रसिद्ध हैं, वनवास काल में जब रामजी, सीताजी  और लक्ष्मणजी चित्रकूट में महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे तो अनुसूयाजी ने सीताजी को पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी थी, भगवान् को अपने भक्तों का यश बढ़ाना होता है तो वे नाना प्रकार की लीलायें करते हैं, एक कथा के अनुसार श्री लक्ष्मीजी, श्री सतीजी और श्री सरस्वतीजी को अपने पातिव्रत्य का बड़ा अभिमान था।

तीनों देवियों के अंहकार को नष्ट करने के लिये भगवान् ने नारदजी के मन में प्रेरणा की, वे श्री लक्ष्मीजी के पास पहुँचे, नारदजी को देखकर लक्ष्मीजी का मुख-कमल खिल उठा, लक्ष्मीजी ने कहा- आइये, नारदजी! आप तो बहुत दिनों बाद आये, कहिये, क्या हाल है? नारद जी बोले- माताजी! क्या बताऊँ, कुछ बताते नहीं बनता।

अब की बार मैं घूमता हुआ चित्रकूट की ओर चला गया, वहाँ मैं महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचा, माताजी! मैं तो महर्षि की पत्नी अनुसूयाजी का दर्शन करके कृतार्थ हो गया, तीनों लोकों में उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं है, लक्ष्मीजी को यह बात बहुत बुरी लगी, उन्होंने पूछा- देवर्षि क्या वह मुझसे भी बढ़कर पतिव्रता है?

नारद जी ने कहा-माताजी!' आप ही नहीं, तीनों लोकों में कोई भी स्त्री सती अनुसूया की तुलना में किसी भी गिनती में नहीं है, इसी प्रकार देवर्षि नारद ने माता सती और सरस्वतीजी के पास जाकर उनके मन में भी सती अनुसूया के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जला दी, अन्त में तीनों देवियों ने त्रिदेवों से हठ करके उन्हें सती अनुसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिये बाध्य कर दिया।

ब्रह्माजी, विष्णुजी और भगवान् शंकरजी महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुँचे, तीनों देव मुनि वेष में थे, उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम पर नहीं थे, अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनुसूया ने स्वागत-सत्कार करना चाहा, किन्तु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया, सती अनुसूयाजी ने उनसे पूछा- मुनियो! मुझसे कौन-सा ऐसा अपराध हो गया, जो आप लोग मेरे द्वारा की हुई पूजा को ग्रहण नहीं कर रहे हैं?

मुनियों ने कहा- देवि! यदि आप बिना वस्त्र के हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगे, यह सुनकर सती अनुसूया सोच में पड़ गयीं, उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया, वे बोलीं- मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूँगी, यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैंने कभी भी काम-भाव से किसी पर-पुरुष का चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छ:-छ: माह के बच्चे बन जायें।

पतिव्रता का इतना कहना था कि त्रिदेव छ:-छ: माह के बच्चे बन गये, माता अनुसूयाजी ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालने में सुला दिया, इस प्रकार त्रिदेव माता अनुसूयाजी के वात्सल्य प्रेम के बन्दी बन गये, इधर जब तीनों देवियों ने देखा कि हमारे पतिदेव तो आये ही नहीं तो वे चिन्तित हो गयीं, आख़िर तीनों अपने पतियों का पता लगाने के लिये चित्रकूट पधारी।

संयोग से नारदजी से उनकी मुलाक़ात वही पर हो गयी, त्रिदेवियों ने उनसे अपने पतियों का पता पूछा, नारदजी ने कहा कि वे लोग तो आश्रम में बालक बनकर खेल रहे हैं, त्रिदेवियों ने अनुसूयाजी से आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा माँगी, अनुसूयाजी ने उनसे उनका परिचय पूछा, त्रिदेवियों ने कहा- माताजी, हम तो आपकी बहुयें हैं, आप हमें क्षमा कर दें और हमारे पतियों को लौटा दें।

अनुसूया जी का हृदय द्रवित हो गया, उन्होंने बच्चों पर  जल छिड़ककर उन्हें उनका पूर्व रूप प्रदान किया, और अन्तत: उन त्रिदेवों की पूजा-स्तुति की, त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर अपने-अपने अंशों से अनुसूया के यहाँ पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया, जो सोम, दत्तात्रेयजी और दुर्वासा मुनि के नाम से जाने जाते हैं।

हरि ओऊम् तत्सत्!
जय हो माता अनुसूयाजी

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