वाराह-अवतार की कथा...

🌹🌹🌹वाराह-अवतार की कथा...
          श्रीशुकदेव जी ने कहा- राजन्! मुनिवर मैत्रेय जी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुर जी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान् की लीला-कथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था।
          विदुर जी ने कहा- मुने! स्वयम्भू ब्रह्मा जी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भु मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया? आप साधुशिरोमणि हैं। आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णु भगवान् के शरणापन्न थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है। जिनके हृदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रम का मुख्य फल है, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है।
          श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! विदुर जी सहस्रशीर्षा भगवान् श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान् की कथा के लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा।
          श्रीमैत्रेय जी बोले- जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर श्रीब्रह्मा से कहा। ‘भगवन्! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीविका प्रदान करने वाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके? पूज्यपाद! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके’।
          श्रीब्रह्मा जी ने कहा- तात! पृथ्वीपते! तुम दोनों का कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भाव से ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है। वीर! पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरों के प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँ तक बने, उनकी आज्ञा का आदरपूर्वक सावधानी से पालन करें। तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो। राजन्! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिन पर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं।
          मनु जी ने कहा- पाप का नाश करने वाले पिताजी! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइ। देव! सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिए।
          श्रीमैत्रेय जी ने कहा- पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रह्मा जी बहुत देर तक मन में यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ। जिस समय मैं लोक रचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल में चली गयी। हम लोग सृष्टि कार्य में नियुक्त हैं, अतः इसके लिये हमें क्या करना चाहिये? अब तो, जिनके संकल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें’।
          निष्पाप विदुर जी! ब्रह्मा जी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासिकाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वाराह-शिशु निकला। भारत! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा हुआ वह वाराह-शिशु ब्रह्मा जी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षण भर में हाथी के बराबर हो गया। उस विशाल वाराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्मा जी तरह-तरह के विचार करने लगे- अहो! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है? कैसा आश्चर्य है! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था। पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हम लोगों के मन को मोहित कर रहे हैं।
          ब्रह्मा जी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे। सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं को प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को हर्ष से भर दिया। अपना खेद दूर करने वाली मायामय वराह भगवान् की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोक निवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् के स्वरूप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराज की-सी लीला करते हुए जल में घुस गये। पहले से सूकररूप भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़े सफ़ेद थीं और नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।
          भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकर रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करने वाले मरीचि आदि मुनियों की और बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल में प्रवेश किया। जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा, तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरंग रूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है। तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदर में लीन कर लिया था।
          फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर मारकर आया हो। तात! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफ़ेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान् को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय को हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे।
          ऋषियों ने कहा- भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपसे पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है। देव! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। ईश! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्त्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्रुवा है, उदार में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्म भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है।
          भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसभ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं। देव! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं। समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमसकर है। वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है।
          नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं।
          प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चार्यमय विश्व की रचना की। जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल बूँदें गिरती हैं। ईश! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहने वाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं। जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही नहीं है। आपकी योगमाया के सात्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये।
          श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! उन ब्रह्मवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करने वाले वराह भगवान् अपने खुरों से जल को स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये।
          विदुर जी! भगवान् के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनिय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मंगलमयी मंजुल कथा को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तल से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परमपद ही दे देते हैं। अरे! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देने वाली भगवान् की प्राचीन कथाओं में से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा।
          इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णने त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
                     

                   श्रीकृष्ण  गोविन्द  हरे मुरारे।
                   हे नाथ नारायण वासुदेवाय॥

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