मांगलिक कितना अमंगल ★

★  मांगलिक कितना अमंगल ★
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 मंगलीक दोष के भयंकर प्रचार को देखते हुए सामान्य व्यक्ति तो यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि मंगलीक दोष हमारे आर्ष ग्रन्थों में इस रूप में वर्णित नहीं है । पता नहीं , किस शुभ व दीर्घायु प्रद मुहूर्त में किसी ने इसे नाम दिया कि यह मिटाए नहीं मिटता ।
         सभी ज्योतिष ग्रन्थों में सिरमौर ' पाराशर होराशास्त्र " माना जाता है । एक श्लोक मिलता है जो वर्तमान प्रचलित सम्बद्ध श्लोक से अर्थानुसार साम्य रखता है । श्लोक इस प्रकार है 
लग्ने व्यये सुखे वापि सप्तमे वाष्टमे कुजे । 
शुभदृग्योगहीने च पतिं हन्ति न संशयः ।। 

वर्तमान प्रचलित श्लोक इस प्रकार है

 लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे ।
 कन्याभर्तृविनाशाय भर्ता पत्नी विनाशकृत् ।।  

तो आशय यह है कि वर - 
★कन्या की कुण्डली में 1 , 12 , 4 , 7 , 8 भावों में मंगल हो तो परस्पर दोषाधायक होता है ।

 आप देख रहे हैं कि पाराशर श्लोक में जहां उक्त स्थानों में स्थित मंगल को दोषकारक माना गया है । जब वह शुभग्रहों से युत या दृष्ट न हो , वहीं बाद वाले श्लोक से यह महत्त्वपूर्ण बात बिल्कुल गायब है ,  बाद में भी शुभ दृग्योगहीन मंगल को ही उक्त स्थानों में दोषकारक माना है लेकिन वहां एक अतिरिक्त दुमछल्ला भी जोड़ दिया गया है कि चन्द्रमा से भी उक्त स्थानों में शनि या मंगल हो तो उक्त दोष होता है । 
★ ध्यान देने योग्य बात है कि पाराशर होरा में उक्त दोष का नामकरण नहीं किया गया है । इसे स्वकल्पना से पतिहन्तृयोग या वैधव्ययोग कहा जा सकता है । मंगलीक का नाम तो वहां है ही नहीं । जबकि यह दोष अनाम ही रह गया है । आप स्वयं समझ सकते हैं कि मंगलीक दोष , कुजदोष या मंगलदोष ये नाम बाद में ही प्रचलित हुए होंगे । यहां तक कि लिखित पाराशर होरा का स्वरूप बनने तक भी ये नाम चलन में नहीं थे । पाराशरी के बाद वाले ग्रन्थों में भी कही इस दोष का निरूपण यथावत् या किञ्चिन्मात्र परिवर्तित रूप में भी नहीं है । वराहमिहिर को मानव ज्योतिष प्रवर्तकों में मुकुटमणि मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । अतः मनुष्यकृत ( ऋषिकृत नहीं ) ज्योतिष ग्रन्थों में वराहमिहिर के ग्रन्थों की आम्नायवत् पवित्रता व प्रामाणिकता सर्वविदित है । वराह के बृहज्जातक में भी ' स्त्रीजातकाध्याय ' लिखा गया है । लेकिन वहां अपना यह मंगलदोष कहीं भी नहीं है । अलबत्ता , सप्तम व अष्टम में पापस्थिति वहां अवश्य दोषाधायक मानी है न कि केवल मंगल । वराहमिहिर के अन्य ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख प्रत्यक्षतः नहीं मिलता । वराहमिहिर के पुत्र पृथुयशा ने भी अपने होरासार में कहीं भी इस दोष का निरूपण नहीं किया है । उन्होंने 1 , 7 , 8 , 9 भावों में पापग्रहों की स्थिति ( केवल मंगल नहीं ) कष्टप्रद मानी है- यदि उन पर शुभ ग्रहों का दृग्योग न हो ।

 लग्नाष्टमभाग्यस्थैः पापैर्दुःखफलान्विता । 
सौम्यग्रहैरसंमिश्रैः सर्वथा क्लेशमाप्नुयात् ।। ( स्त्री . 50 ) 

इतने विवेचन से यह तो स्पष्ट हो चुका है कि वराहमिहिर के समय तक अर्थात् छठी शताब्दी तक तो कम से कम प्रचलित मंगलीक दोष का कोई ओर छोर भी नहीं था । 

★इसी प्रकार कल्याण वर्मा ने भी इस विषय में कुछ नहीं कहा है । कल्याण वर्मा ने यवनजातक मत व भारतीय मत को ग्रहण कर सारावली की रचना की थी ।
★ इसका स्पष्ट उल्लेख सारावली में है । तब यवनों ने भी इस मंगलीक दोष का उपहार हम भारतीयों को नहीं दिया है , यह बात स्वयं सिद्ध है । ग्रह भावफल कहते समय कल्याणवर्मा ने सप्तम्रभावगत मंगल शनि को पूर्वाचार्यों की तरह दाम्पत्यनाशक ही माना है ।
★ द्वादशभागवतमंगल भी विवाह सुखनाशक कहा है । शेष बातें पूर्ववत् ही हैं । 
★अलग से सुविचारित मंगलीक दोष वहां नहीं है । आइए , उत्तरकालीन ग्रन्थोंजातक पारिजात में वैद्यनाथ ने स्पष्ट कहा है कि लग्न से सप्तम में सभी पापग्रह हों तो विधवा होती है । अर्थात् सप्तम में अकेला मंगल पतिघातक योग नहीं बना सकता है । '

 क्रूरग्रहैरस्तगतैः समस्तैर्विलग्नराशेर्विधवा भवेत्सा ।।
 ( जात . पारि . , 16,30 )

 ★सप्तमस्थ मंगल को वराहमिहिरादि ने बाल्यकाल में वैधव्यप्रद माना है - '
 कुजेन विधवा बाल्येऽस्तराशिस्थिते ।

 ' लेकिन आजकल न तो बाल विवाह होते हैं और न ही इससे वर्तमान प्रचलित कुजदोष सिद्ध होता है । फिर भी हम यह कहना चाहेंगे कि कोई भी ग्रह केवल भावस्थिति मात्र में ही सम्पूर्ण फल नहीं देता । 
★उस पर पाप प्रभाव , अधिष्ठित राशि , दृष्टि , उस ग्रह का बलाबलोदि का विचार आवश्यक होता है ।
★ विक्रम संवत् की अट्ठारहवीं सदी में बलभद्र मिश्र ने होरा रत्न लिखा था । 
★उसमें भी कहीं पर मंगलीक दोष का वर्णन नहीं मिलता है । हां , 
★विक्रम संवत् की बीसवीं सदी में रचित रामदीन दैवज्ञ के रंजन संग्रह नामक ग्रन्थ में मंगलीक दोष का नाम व वर्तमान प्रचलित रूप देखने को मिलता है 

, लेकिन वहां उन्होंने उस श्लोक का स्रोत नहीं बताया है । 
अतः हमारा विचार है कि मंगलीक दोष का वर्तमान स्वरूप लगभग 100 वर्षों पूर्व ही निर्धारित होकर में आया होगा ।

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