शनि

#शनि की तीन दृष्टियों 3,7,10 में से तीसरी दृष्टि को सबसे शक्तिशाली और खतरनाक माना गया है। किसी व्यक्ति की जन्मकुंडली में शनि की तीसरी दृष्टि जिस भी घर पर होती है, जातक को उस घर से संबंधित परिणाम प्राप्त करने में कड़ा संघर्ष और मेहनत करना पड़ती है। ऐसे जातक को अपनी 32 वर्ष की आयु तक तो तीसरी दृष्टि वाले घर से संबंधित फल पाने के लिए एड़ी-चोटी तक का जोर लगाना पड़ता है। 32 की आयु के बाद से संघर्ष कुछ कम जरूर होता है, लेकिन मेहनत फिर भी जबर्दस्त करना पड़ती है।

#शनि की विशोत्तरी दशा 19 वर्ष की होती है। अत: कुंडली में शनि अशुभ स्थिति में होने पर उसकी दशा में जातक को लंबे समय तक कष्ट भोगना पड़ता है। शनि सबसे धीमी गति से गोचर करने वाला ग्रह है। वह एक राशि के गोचर में लगभग 2½ वर्ष का समय लेता है। चन्द्रमा से द्वादश चन्द्रमा पर और चन्द्रमा से अगले भाव में शनि का गोचर साढ़े-साती कहलाता है। वृष, तुला, मकर और कुम्भ लग्न वालों के अतिरिक्त अन्य लग्नों में प्राय: यह समय कष्टकारी होता है। शनि शक्तिशाली ग्रह होने से अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा दूसरे ग्रहों के फलादेश में न्यूनता लाता है। सप्तम दृष्टि के अतिरिक्त उसकी तीसरे व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि होती है।

#शनि के विपरीत #चंद्रमा एक शुभ परन्तु निर्बल ग्रह है। चन्द्रमा एक राशि का संक्रमण केवल 2द से 2½ दिन में पूरा कर लेता है। चन्द्रमा के कार्यकाल में मन की स्थिति, माता का सुख, सम्मान, सुख-साधन, मीठे फल, सुगन्धित फूल, कृषि, यश, मीठे, कांसा, चांदी, चीनी, दूध, कोयला, वस्त्र, तरल पदार्थ, स्त्री का सुख आदि आते हैं।

जन्म के समय #चंद्रमा बलवान, शुभ भागवत, शुभ राशिगत, उच्च, मूलत्रिकोण, स्वक्षेत्री, शुभ दृष्ट अथवा शुभ ग्रह युक्त होने पर जातक जीवन में अनेक प्रकार के सुख भोगता है। विपरीत स्थिति में विपरीत फल मिलता है।

#चंद्रमा मन का कारक है और शनि का कारक तत्व दुखदाई है। अत: शनि-चन्द्र की युति मन को विचलित व दुखी करने वाली होती है। #शनि_चंद्र की युति उदरस्थ साढ़े साती का मध्य दर्शाती है, जिसका अशुभ प्रभाव मध्य अवस्था तक रहता है। शनि के चन्द्रमा से अधिक अंश या अगली राशि में होने पर जातक अपयश का भागी होता है। सभी ज्योतिष ग्रंथों में शनि चन्द्र की युति का फल अशुभ कहा गया है। '#जातक_भरणम' ने इसका फल परजात, निन्दित, दुराचारी, पुरुषार्थ-हीन कहा है। बृहदजातक तथा फलदीपिका ने इसका फल अशुभ से  बताया है। अशुभ फलादेश के कारण इस युति को विष योग की संज्ञा दी गई है। विष योग का अशुभ फल जातक को चन्द्रमा और शनि की दशा में उनके बलानुसार अधिक मिलता है। कष्टक शनि, अष्टम शनि तथा साढ़ेसाती कष्ट बढ़ाती है।

ऐसी मान्यता है कि #शनि और चन्द्रमा की युति जातक द्वारा पिछले जन्म में किसी स्त्री को दिए गए कष्ट को दर्शाती है। वह जातक से बदला लेने के लिए इस जन्म में उसकी मां बनती है। माता का शत्रुत्व प्रबल होने पर वह पुत्र को दुख, दारिद्रय तथा धन नाश देते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहती है। यदि पुत्र का शत्रुत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद माता की मृत्यु हो जाती है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसकी संभावना 14वें वर्ष तक रहती है।

#कुंडली के जिस भाव में विष योग स्थित होता है, उस भाव संबंधी कष्ट मिलते हैं। नजदीकी परिवारजन स्वयं दुखी रहकर विश्वासघात करते हैं। जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं और वह आर्थिक तंगी के कारण कर्ज से दबा रहता है। जीवन में सुख नहीं मिलता। जातक के मन में संसार से विरक्ति का भाव जागृत होता है और वह अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है।

#प्रथम भाव (लग्न) में- इस योग के कारण माता के बीमार रहने या उसकी मृत्यु से किसी अन्य स्त्री (बुआ अथवा मौसी) द्वारा उसका बचपन में पालन-पोषण होता है। उसे सिर और स्नायु में दर्द रहता है। शरीर रोगी तथा चेहरा निस्तेज रहता है। जातक निरुत्साही, वहमी एवं शंकालु प्रवृत्ति का होता है। आॢथक सम्पन्नता नहीं होती। नौकरी में पदोन्नति देरी से होती है। विवाह देर से होता है। दाम्पत्य जीवन सुखी नहीं रहता। इस प्रकार जीवन में कठिनाइयां भरपूर रहती हैं।

#द्वितीय भाव में- घर के मुखिया की बीमारी या मृत्यु के कारण बचपन आॢथक कठिनाई में व्यतीत होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में बाधा आती है। जातक की वाणी में कटुता रहती है। वह कंजूस होता है। धन कमाने के लिए उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जीवन के उत्तराद्र्ध में आर्थिक स्थिति ठीक रहती है। दांत, गला एवं कान में बीमारी की संभावना रहती है।

#तृतीय भाव में- जातक की शिक्षा अपूर्ण रहती है। वह नौकरी से धन कमाता है। भाई-बहनों के साथ संबंध में कटुता आती है। नौकर विश्वासघात करते हैं। यात्रा में विघ्न आते हैं। श्वास के रोग होने की संभावना रहती है।

#चतुर्थ भाव में- माता के सुख में कमी अथवा माता से विवाद रहता है। जन्म स्थान छोड़ना पड़ता है। मध्यम आयु में आय कुछ ठीक रहती है, परन्तु अन्तिम समय में फिर से धन की कमी हो जाती है। स्वयं दुखी व दरिद्र होकर दीर्घ आयु पाता है। उसके मृत्योपरान्त ही उसकी संतान का भाग्योदय होता है। पुरुषों को हृदय रोग तथा महिलाओं को स्तन रोग की संभावना रहती है।

#पंचम भाव में- विष योग होने से शिक्षा प्राप्ति में बाधा आती है। वैवाहिक सुख अल्प रहता है। संतान देरी से होती है या संतान मंदबुद्धि होती है। स्त्री राशि में कन्याएं अधिक होती हैं। संतान से कोई सुख नहीं मिलता।

#षष्ठम भाव में- जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं। ननिहाल पक्ष से सहायता नहीं मिलती। व्यवसाय में प्रतिद्वंद्वी हानि करते हैं। घर में चोरी की संभावना रहती है।

#सप्तम भाव में- स्त्री की कुंडली में विष योग से पहला विवाह देर से होकर टूटता है और दूसरा विवाह करती है। पुरुष की कुंडली में यह युति विवाह में अधिक विलम्ब करती है। पत्नी अधिक उम्र की या विधवा होती है। संतान प्राप्ति में बाधा आती है। दाम्पत्य जीवन में कटुता और विवाद के कारण वैवाहिक सुख नहीं मिलता। साझेदारी के व्यवसाय में घाटा होता है। ससुराल की ओर से कोई सहायता नहीं मिलती।

#अष्टम भाव में- दीर्घकालीन शारीरिक कष्ट और गुप्त रोग होते हैं। टांग में चोट अथवा कष्ट होता है। जीवन में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती। उम्र लंबी रहती है। अंत समय कष्टकारी होता है।

#नवम भाव में- भाग्योदय में रुकावट आती है। कार्यों में विलंब से सफलता मिलती है। यात्रा में हानि होती है। ईश्वर में आस्था कम होती है। कमर व पैर में कष्ट रहता है। जीवन अस्थिर रहता है। भाई-बहन से संबंध अच्छे नहीं रहते।
#दशम भाव में- पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते। नौकरी में परेशानी तथा व्यवसाय में घाटा होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में कठिनाई आती है। आॢथक स्थिति अच्छी नहीं रहती। वैवाहिक जीवन भी सुखी नहीं रहता।

#एकादश भाव में- बुरे दोस्तों का साथ रहता है। किसी भी कार्य में लाभ नहीं मिलता। संतान से सुख नहीं मिलता। जातक का अंतिम समय बुरा गुजरता है। बलवान शनि सुखकारक होता है।

#द्वादश स्थान में- जातक निराश रहता है। उसकी बिमारियों के इलाज में अधिक समय लगता है। जातक व्यसनी बनकर धन का नाश करता है। अपने कष्टों के कारण वह कई बार आत्महत्या तक करने की सोचता है।

#महर्षि पराशर ने दो ग्रहों की एक राशि में युति को सबसे कम बलवान माना है। सबसे बलवान योग ग्रहों के राशि परिवर्तन से बनता है तथा दूसरे नंबर पर ग्रहों का दृष्टि योग होता है। अत: शनि चन्द्र की युति से बना विष योग सबसे कम बलवान होता है। इसके राशि परिवर्तन अथवा परस्पर दृष्टि संबंध होने पर विष योग संबंधी प्रबल प्रभाव जातक को प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त शनि की तीसरी, सातवीं या दसवीं दृष्टि जिस स्थान पर हो और वहां जन्मकुंडली में चन्द्रमा स्थित होने पर विष योग के समान ही फल जातक को प्राप्त होते हैं।

उपाय-

शिव जी शनि देव के गुरु हैं और चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण करते हैं। अत: विष योग के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए देवों के देव महादेव शिव की आराधना व उपासना करनी चाहिए। सुबह स्नान करके प्रतिदिन थोड़ा सरसों का तेल व काले तिल के कुछ दाने मिलाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुए ऊं नम: शिवाय का उच्चारण करना चाहिए। उसके बाद कम से कम एक माला महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए।

शनिवार को शनि देव का संध्या के समय तेलाभिषेक करने के बाद गरीब, अनाथ एवं वृद्धों को उड़द की दाल और चावल से बनी खिचड़ी का दान करना चाहिए।

ऐसे व्यक्ति को रात के समय दूध व चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे चंद्रमा और निर्बल हो जाता है।

Comments

Popular posts from this blog

Chakravyuha

Kaddu ki sabzi

Importance of Rahu in astrology