, ट्रेन में साधु
अक्सर अपने देखा होगा की टीटी, ट्रेन में साधु या फकीर से टिकट नहीं मांगता है, जबकि वो जानता है कि ये बिना टिकट यात्रा कर रहे हैं? आइए जानते हैं इस अनोखी कथा के बारे में।
संत-महात्मा भारत जैसे राष्ट्र की धरोहर होते हैं। इन्हीं अध्यात्मिक गुरुओं के कारण भारत आदिकाल से धर्म गुरु के रूप में विश्वगुरु बनकर विख्यात रहा है। वर्तमान युग में भी अनेक संत, ज्ञानी, योगी और प्रवचनकर्ता अपने कार्यों और चमत्कारों से विश्व को चमत्कृत करते रहे हैं परंतु बाबा नीम करौली की बात ही अलग थी।
बाबा का जन्म उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद शर्मा था। माना जाता है कि बाबा ने लगभग सन् 1900 के आसपास जन्म लिया था और उनका नाम लक्ष्मी नारायण रखा गया था। महज 11 वर्ष की उम्र में ही बाबा की शादी करा दी गई थी। बाद में उन्होंने अपने घर को छोड़ दिया था। एक दिन उनके पिताजी ने उन्हें नीम करौली नामक गांव के आसपास देख लिया था। यह नीम करौली ग्राम खिमसपुर, फर्रूखाबाद के पास ही था। बाबा को फिर आगे इसी नाम से जाना जाने लगा। माना जाता है कि लगभग 17 वर्ष की उम्र में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी।
एक दिन बाबा गंगा स्नान के लिए अपनी गुफा से बाहर निकले ही थे कि उन्हें सामने लगभग दो सौ मीटर दूर रेल की पटरी पर फर्रुखाबाद की तरफ जाती हुई एक गाड़ी दिखाई दी। बाबा के साथ हर एकादशी और पूर्णमासी को गोपाल नामक एक बहेलिया और एक मुसलमान गंगा-स्नान के लिए जाया करते थे। यह बाबा की मौज थी कि उन्हें उस गाड़ी पर बैठकर जाने की इच्छा हुई। फिर क्या था, चलती गाड़ी एकाएक रुक गई और बाबा उस गाड़ी में बैठ गए। जब टीटी ने टिकट चेक की तो टिकट न होने पर ट्रेन से उतर दिया। बाबा यहां उतर कर रेलवे लाइन के पास एक बाग में बैठ गए। ट्रेन ड्राइवर ने ट्रेन को आगे ले जाने का भरकस प्रयास किया लेकिन ट्रेन आगे नहीं बढ़ी।
चालक के लिए भी यह सब रहस्य बन कर रह गया। रेलवे अधिकारियों के लाख प्रयास के बाद भी ट्रेन आगे नहीं बढ़ पाई। तब लोगों ने बताया की आप के अधिकारी ने बाबा जी को ट्रेन से नीचे उतर दिया था। रेल अधिकारियों ने जाकर बाबा से माफ़ी मांगी और बाबा अपने परिचरों के साथ उसमें सवार हो गए। उनके बैठते ही गाड़ी चल पड़ी। बाबा की इस लीला स्मृति में ग्रामवासियों के आग्रह पर भारत सरकार ने नीम करौरी ग्राम के इस स्थान पर अब लछमन दास पुरी रेलवे स्टेशन बना दिया है।
और कहा जाता है कि इस घटना के बाद से रेलवे अधिकारी साधु संतों से टिकट की मांग नहीं करते।
धन्य है यह भारत भूमि और धन्य हैं यहां के संत। आशा है कि आपको यह कथा रुचिकर और ज्ञानवर्धक लगी होगी ।
चित्र (सांकेतिक) साभार
🚩जय सियाराम🚩
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